29 जुलाई, 2011

नज़्म

ख़ामोश निगाहें, लबे दरिया पे झुक चले
 हैं वो बादिलों के साए,
दिल की वादियों में रुके रुके से तूफ़ान -
लगे हैं फिर क्यूँ गहराए,
वो हसीं फ़रेब के धागे ख़ुद ब ख़ुद उलझे
बग़ैर उन्हें कोई उलझाए,
कमज़ोर थीं शायद सभी जंजीरों की लड़ी
जो छूते ही टूट जाए,
न बाँध मुझे अपनी ज़िन्दगी में इस क़द्र
के बिछड़ के जी न पाएं,
कोई वादा न लें उम्र भर के लिए, ये दोस्त
न कोई मुहर ही लगाएं,
मिलो इस तरह के मुतालबा न हो दिल में
न हर क़दम हों घबराए,
- -  शांतनु सान्याल

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