29 जुलाई, 2011

नज़्म

ख़ामोश निगाहें, लबे दरिया पे झुक चले
 हैं वो बादिलों के साए,
दिल की वादियों में रुके रुके से तूफ़ान -
लगे हैं फिर क्यूँ गहराए,
वो हसीं फ़रेब के धागे ख़ुद ब ख़ुद उलझे
बग़ैर उन्हें कोई उलझाए,
कमज़ोर थीं शायद सभी जंजीरों की लड़ी
जो छूते ही टूट जाए,
न बाँध मुझे अपनी ज़िन्दगी में इस क़द्र
के बिछड़ के जी न पाएं,
कोई वादा न लें उम्र भर के लिए, ये दोस्त
न कोई मुहर ही लगाएं,
मिलो इस तरह के मुतालबा न हो दिल में
न हर क़दम हों घबराए,
- -  शांतनु सान्याल

24 जुलाई, 2011


नज़्म 
आसां नहीं था आग की लपटों से 
खेलना,मुझे मालूम है ज़िन्दगी 
की हकीक़त,कि तुम दुनिया से 
अलहदा नहीं, वही अंदाज़े वफ़ा 
वही रश्मे उल्फ़त, निभाए जाओ -
ज़माने से छुप के न मिला करो 
ज़हर उतरे जिगर के पार इक ही 
बार, बढ़ा के प्याले लबों तक यूँ 
साफ़गोई से हाथ छुड़ाया न करो,
रिश्तों को ज़रा सा बहलाए जाओ - 
-- शांतनु  सान्याल 

22 जुलाई, 2011

मिट्टी के खिलौने 

गहराइयों का तो पता नहीं उड़ -
चले हैं ख़ुश्क पत्ते, न जाने किस तरफ 
शाख़ों के माथे कोई शिकन नहीं,
ज़िन्दगी है फिर मुन्तज़िर किसी की इक 
मुस्कराहट के लिए,कौन अल सुबह 
दे गया आँखों को ताज़गी भरी
इंतज़ार ए ख़ुशी फिर खिल चले हैं 
उदास टहनियों में ढेरों मुहोब्बत के फूल !
हथेली में छुपा रखी है इक बूंद
जो रात ने चुपके से आँखों में सजाया
था, तुम्हारे उँगलियों के निशान
छोड़ गए हैं,भीगी पलकों तले कोई ख़्वाब,
ज़िन्दगी फिर पुकारती है किसे
भर चले हैं वीरान सूखी नदी की घाटियाँ,
तुम हो यहीं कहीं या है भरम मेरा
जी चाहे कि संवार लूँ उलझी लटें,आइना
दे रहा है दस्तक,कोई भीग चला
है बाहर,खोल दूँ  इक बार बंद दरवाज़ा
बहोत तेज़ बारिश है,न बह जाएँ कहीं
रेत के मकां,कच्चे मिट्टी के खिलौने सभी !
--- शांतनु सान्याल

19 जुलाई, 2011

कंटीली सीमा रेखा 
 
टूटे सीप, शंख, शंबुक, जीर्ण शैवाल
कराह्तीं सागर तरंग, अस्ताचल से
पहले डूबता उभरता ये जीवन सूर्य !
एक अकेला सुदूर क्षितिज में खेता
जाय आश भरी नौका अविराम, वो
प्रतिध्वनित स्वर रचे स्वप्न मधुर,
क्लांत ह्रदय चुनना चाहे बिखरी -
सांझ लालिमा एक एक,उभरे सहसा
कोई शुक्रतारा प्रतीच्य गगन में, ले
नीलाभ किरण मुस्कान भरा, मन
चाहे फिर जीवन में लिखूं गीत नया,
जिसमे हों मासूम, निष्पाप शिशु की
निश्छल छवि, खिलता हुआ ज्यों
नवजात गुलाब, सभी दुःख दर्द से दूर,
एक ऐसी दुनिया जहाँ तुम तुम न
हों, मैं मैं न रहूँ, एक दूसरे में हों डूबे -
अपना पराया जहाँ कोई नहीं, न
कोई भूभाग न ही कंटीली सीमारेखा !


-- शांतनु  सान्याल

16 जुलाई, 2011

नज़्म - - तर्क़ब नज़र

न देख फिर मुझे तर्क़ब नज़र से यूँ
मजरूह जिस्म, दर्दे शख्सियत ले,
किस तरह से तेरी मुहोब्बत क़ुबूल
करूँ, कि ये खुशफ़हमी न दे जाये -
कहीं तवील जीने की सज़ा दोबारा,
रहने भी दे ये इश्फाक़े इनाम नया !
अभी अभी तो छायें हैं बादल घने -
बरसने दे निगाहों को दो पल कि
दूर हो जाएँ ज़रा सदियों की वीरानगी,
कोई ख़ूबसूरत गुले सबार तो खिले -
खुश्क़ दिल में गिरे चंद शबनमी बूंदें,
बोझिल सांसों में सजे संदली ख़ुश्बू
फिर बिखरतीं लहरों को साहिल मिले,
ज़िन्दगी को जीने का अंदाज़ मिले,
-- शांतनु सान्याल
तर्क़ब - आशा भरी
तवील - लम्बी
 इश्फाक़े इनाम - सहानुभूति का इनाम
 गुले सबार- कैक्टस 

14 जुलाई, 2011


ला उन्वान  
इन ख़ून की बूंदों में न कर तलाश
अक्शे ख़ुदा, हर दर्द भरी चीख में 
है शामिल ज़िन्दगी, ये टूट के 
आँखों से जो गिरती हैं बूंदें इनमें 
हैं अनदेखे ख़्वाब कई, न कर 
बर्बाद कि बड़ी मुश्किल से उठी 
हैं साँसें इक नयी सुबह के लिए, न 
दे अज़ाब इन खिलते फूलों को 
ये हैं तो हर सै में हैं ख़ुशी के मानी 
तू जीत भी ले ग़र सारी दुनिया 
दिल की विरानगी को आबाद न 
कर पायेगा, आग नहीं जानता 
अपना पराया, न झुलस जाय कहीं 
ख़ुद का घर, बस्ती सुलगने से 
पहले, अक़ीदत जो न समझ पाए
जज़्बा-ए- इंसानियत, ऐसे राहे
फ़लसफ़ा से आख़िर क्या हासिल,   
-- शांतनु सान्याल 
 ला उन्वान  - शीर्षक विहीन 
  अज़ाब - शाप 
अक़ीदत - श्रद्धा

12 जुलाई, 2011

पल भर तो रुके

ये ख़ामोशी है, या कोई  मत्सूफ़ नज़र
हर एक क़दम पे बहक सा जाए है डगर,
ये ख़ुमारी न डूबा ले जाए मुझे, जिससे
बचता रहा मंजिल- मंजिल, शहर- शहर,
चाहो तो अता कर जाओ जी चाहे सज़ा
न दो मुझे यूँ शहद के नाम पे दर्द ए ज़हर,
आह भी, इक इल्ज़ाम ए आरज़ू सा लगे
सांस भी लेना है मुश्किल, ऐ इश्क़े असर,
कहीं तो होगी इलाज ए मकां, बेचैन जिगर
पल भर तो रुके सही, ऐ बरसात ए  क़हर,
-- शांतनु सान्याल
 मत्सूफ़ - रहस्यमयी

11 जुलाई, 2011

नज़्म

गुज़रीं हैं बादे सबा अक्सर उदास सी 
इस ज़मीं का आसमां कोई नहीं,
खिलते हैं गुल ओ ज़ोहर दिलकश 
अंदाज़ लिए, ज़माने को फुरसत ही 
नहीं कि देखें इक नज़र के लिए, 
वहीँ रुकी सी हैं तमाम फ़सले बहार 
तरसतीं हैं निगाह  दर्दे असर के लिए,
न जाने किस मक़ाम पे बरसतीं हैं 
बदलियाँ, मुद्दतों ज़मीं तर देखा नहीं, 
कोई सबब शायद उन्हें मुस्कुराने नहीं 
देतीं,वरना चाहत में कमी कुछ भी न थीं !
-- शांतनु सान्याल

09 जुलाई, 2011

नज़्म - - सुलहनामा

भीगी भीगी सी फ़िज़ा, उभरे हैं फिर
कुछ बूंदें,बिखरती हैं रह रह न जाने
क्यूँ शीशायी अहसास, दिल चाहे कि
थाम  लूँ टूटती दर्द की लड़ियाँ, ग़र
तुम यक़ीन करो ये शाम झुक चली
है, फिर  घनी पलकों तले, सज चले
हैं ख़्यालों में कहीं, उजड़े  मरूद्यान
मांगती है ज़िन्दगी जीने का कोई
नया बहाना, चलो फिर से करें इक
बार दश्तख़त, है ये रात सुलहनामा,

-- शांतनु सान्याल 

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