20 जून, 2011

नज़्म - - ख़ामोशी की सदा

ये ख़ामोशी की सदा, कहीं इशारा
तो नहीं, उनकी आँखों में कोई
तूफ़ान सा थमा लगे, कि डूबती
हैं  क्यूँ  हवाओं की अठखेलियाँ,
खौफ़ सा घिर आये है  ज़ेहन में
ये रात कहीं जाँ से  न गुज़र जाए,
महफिल है उठ चली सितारों की
इक नज़र को तरस गए हम, ये
बात और है कि ज़िन्दगी किसी के
नाम थी,बड़ी बेदर्दी से दिल को
पियानो से यूँ हटा दिया कि छू न
जाय  उँगलियाँ  रिसते घाओं को
कहीं, झूलते झाड़ फानूस ने निभाई
दोस्ती, अँधेरे में हम खुद को देख
पाए,उनकी आँखों ने हमें यूँ तो दर
किनार कर दिया, गुज़रना था -
बादिलों को सो गुज़र गए बेरुख़ी से
गर्दो गुबार की सौगात लिए हम
सहरा की क़िस्मत बन गए साहब,
आसमानी दुनिया में किसी की,इक
टूटे हुए गुलदान की तरह थे शामिल,
ज़माना गुज़र गया सीने में गुलाब
सजाये हुए,इक मुश्त मुस्कराए हुए.

-- शांतनु सान्याल


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