29 जून, 2011


मुख़्तसर आरज़ू 

क्यूँ मज़तरब, बेक़रार सा है दिल 
अत्शे रूह बढ़ चली 
अब्रे अश्क़ रुके रुके सांसें हैं 
बोझिल न जाने कहाँ किस मक़ाम 
पे रुकी है ज़िन्दगी 
ये घने ज़ुल्मात के साए घेर चले 
फिर मर्तूब शब् मांगती है 
शिनाख्त ए मक़ाला, कहाँ जाएँ इस 
वहशतनाक रहगुज़र में 
अपनी ही साया है डरी डरी, दूर दूर 
आइना है गुमसुम सा 
दर ओ दीवार हैं ख़ामोश नज़र, कोई 
सूरत कोई बहाना कहीं से 
उभर आये, ज़िन्दगी को ढूंढ़ लाएँ 
सुबह देखने की सदीद आरज़ू
उम्र भर की तिश्नगी को कमज़कम
दो पल राहत नशीब हो, 
-- शांतनु सान्याल

मर्तूब शब् - भीगी रात
अत्शे रूह - रूह की प्यास
 मज़तरब - परेशां 
अब्रे अश्क़ - आंसुओं के बादल
शिनाख्त ए मक़ाला, -- पहचान पत्र

27 जून, 2011

ग़ज़ल - - तिश्नगी

इधर 
 से  गुज़रीं  हैं  शैलाबे  फ़लक बअज़ दफ़ा 
तिश्नगी  लेकिन  है मीलों लम्बी  बेक़रां  बहर 
वो  ख़लाओं  में अक्सर  मेरा  अक्श  ढूंढा  किये 
हूँ  मुद्दत  से  मैं  हामिद दिल के मुतलक़ भीतर 
बाहोश  उठा  तो  लिया था उसने  ये अहदे  वफ़ा 
सोचा भी  नहीं  के  जानलेवा  है कितना ये  ज़हर 
जिस्त  की  वो  तमाम  तहरीरें  जो वक़्त ने  दिए 
पढ़ा  उसने  नम आँखों  से, बेख़बर  शामो  सहर 
 न  जान  पाया  दिल  की  गहराइयों  का  राज़
ठिकाना  ही नहीं  मालूम,  है मारुफ़  ये रहगुज़र 
अपनी  ही  परछाइयों   से  दर  किनार  वो  चलें 
छूना  चाहे  हैं, वो मुझे  लेकिन भटके हैं दरबदर 
ले  चलो  मुझे  भी  उस  दर महबूबे  मक़सूद 
कि आ  जाय ज़रा  सी  नींद  जागता रहा  उम्रभर 
उठा  भी लो   कोई  पत्थर  मजमा  है  इस  क़दर 
है ये  जिस्म  मजरूह, कामिले  इश्क़  में  तरबतर,

- -- शांतनु सान्याल

हामिद - छुपा हुआ 
मुतलक़ - गहराई तक 
कामिल - पूर्ण 
बहर   - सागर 
बेक़रां - अथाह 
बअज - कई 

26 जून, 2011

वो इश्क़ जो आप चाहें कि दे न सकूंगा 
है बहुत मुश्किलभरी  जिंदगी की राहें,
और कहीं दोस्त मेरे, ढूंढ़ लें मंज़िल नया 
इस राह पे हैं सिर्फ घने तीरगी के बाहें ,
इस सराबे ख़ुशी का सऊर न दिला कि
खोजतीं हैं मुझको फिर मतीर निगाहें,
-- शांतनु सान्याल
सराब - मरीचिका 
सऊर - चाहत, 
मतीर - भीगी

23 जून, 2011

नज़्म - - थमीं सी हैं बूंदें

थमीं सी हैं बूंदें नाज़ुक शाख़ की
 
झुकी हुई, टहनी में सांस रोके -

कि देखता हूँ मैं अक्सर तुम्हें

खुले आसमां की तरह, रात ढले

शबनमी कोई अहसास लिए  -

उतरतीं हैं ख़लाओं से हौले हौले

नूरे ख़्वाब  मद्धम मद्धम, ये

 रात है बहुत ही कम, किसी की
 
इबादत के लिए, उम्र भर की

दुआओं में है कोई शामिल इस
 
क़दर,गोया छू लिया हो  बेख़ुदी

में किसी को ख़ुदा समझ कर,

है आबाद उनकी आँखों में कोई
 
लापता हसरतों की बस्तियां -
 
कि मैं बारहा डूब कर ज़िन्दगी

की तरह प्यार करता हूँ, हर

लम्हा किसी का इंतजार करता हूँ.

--- शांतनु सान्याल

21 जून, 2011

आज़ाद नज़्म

न करें ताज्जुब ये मेरी ही ताबूत है
ले चला हूँ काँधे पे लादे  दफ़न के लिए
ये कोई पहले दफ़े की बात नहीं, न
जाने कितने बार मर चूका हूँ मैं,
ग़र न हो यकीं पूछ लीजे इन खामोश
दरख्तों, सिमटते छाओं, सफ़ेद -
पोश चेहरों, सुलगती हुयीं वादियों से -
अपनी ही हाथों जला आया हूँ
हसरतों को,ख्वाबों के बियाबानो को
जिस्त की बेपनाह मुहोब्बत ही
थी कि लौट आती है,ये  रूह  बार बार
कभी भूख बनकर,कभी बिकाऊ
जिस्म बनकर,भटकती है अक्सर ये
आवारा आम सड़कों पे, और कभी
रात ढलते समेटती है झूठे बर्तनों को,
तलाशती है इक ज़रा सी जगह
स्टेशन की गलीच फर्श में,फुटपाथों में,
उसे नींद आती है पुरअसर बिना
कोई दवाओं के, कहीं भी, दरअसल वो
थकन ही है उसका बदन,जो किसी से
कुछ नहीं कहता, बिखरता है हर
पल, मिटता है लम्हा लम्हा, तिल तिल
ये मुसलसल मौत ही उसे बना जाता
है बेअसर, ज़हर आहंग, नासूर
दर्द, न कभी रिसता है न ही फटता है
सिर्फ सीने की गहराइयों में लिए
ज़लज़ले, धधकता, कांपता, सिसकता
तकता है सिफ़र आँखों से आसमां
की खूबसूरती, लेकिन छू नहीं सकता !
--- शांतनु सान्याल   




ग़ज़ल - - बेवजह बरसात से,

मिलता हूँ मैं रोज़ मेरी ही हम ज़ात से

है उन्हें  ग़र गिला तो रहे इस बात से

तंग है ज़िन्दगी इस बेवजह बरसात से,

वो निकलते हैं दबे क़दम इस तरह

कांपती हों साँसें रूह के ज्यों निज़ात से,

इस गली ने कभी उजाला नहीं  देखा

चाँद है बेख़बर  दर्दो अलम जज़्बात से,

मुस्कुराता तो हूँ मैं छलकती आँखों से

हासिल क्या आख़िर इस अँधेरी रात से,

खोजते हैं क्यूँ लोग,चेहरे पे राहतें, उन्हें

फ़र्क नहीं पड़ता जीने मरने की बात से,

इन मक़बरों में दिए जलाएं, कि बुझाएं

 हैं गहरी नींद में,जुदा सभी तासिरात से,

कह दो ये चीखें हैं किसी और सै की -

किसे है फ़िक्र आख़िर मजरुहे हालात से,

-- शांतनु सान्याल

ग़ज़ल - - रूहे अफ़साना

वो ज़रा सी बात का फ़साना बना चले

अश्क तो छलक ही न पाए पलकों से

निगाहों को छूने का बहाना बना चले,

अभी आसमां खुल के बिखरा भी नहीं

शबनमी बूंदों पे वो तराना बना चले,

वो जो कहते हैं, मुझसा कोई भी नहीं

शमा जले न जले यूँ परवाना बना चले,

वजूद को मुकम्मल खिलना है बाक़ी

क़बल रात,सरे शाम दीवाना बना चले,

कि अभी अभी बदन पे उगे हैं ख़ुशबू

खिलने से पहले गुले खज़ाना बना चले,

दिल की चाहत है क्या काश, समझ लूँ

हामी बग़ैर ही वो रूहे अफ़साना बना चले,

-- शांतनु सान्याल





 





20 जून, 2011

नज़्म - - ख़ामोशी की सदा

ये ख़ामोशी की सदा, कहीं इशारा
तो नहीं, उनकी आँखों में कोई
तूफ़ान सा थमा लगे, कि डूबती
हैं  क्यूँ  हवाओं की अठखेलियाँ,
खौफ़ सा घिर आये है  ज़ेहन में
ये रात कहीं जाँ से  न गुज़र जाए,
महफिल है उठ चली सितारों की
इक नज़र को तरस गए हम, ये
बात और है कि ज़िन्दगी किसी के
नाम थी,बड़ी बेदर्दी से दिल को
पियानो से यूँ हटा दिया कि छू न
जाय  उँगलियाँ  रिसते घाओं को
कहीं, झूलते झाड़ फानूस ने निभाई
दोस्ती, अँधेरे में हम खुद को देख
पाए,उनकी आँखों ने हमें यूँ तो दर
किनार कर दिया, गुज़रना था -
बादिलों को सो गुज़र गए बेरुख़ी से
गर्दो गुबार की सौगात लिए हम
सहरा की क़िस्मत बन गए साहब,
आसमानी दुनिया में किसी की,इक
टूटे हुए गुलदान की तरह थे शामिल,
ज़माना गुज़र गया सीने में गुलाब
सजाये हुए,इक मुश्त मुस्कराए हुए.

-- शांतनु सान्याल


17 जून, 2011

नज़्म - - मुस्कराने का सबब

कहाँ से आतीं हैं,
कराहों में डूबी ये आवाज़ें -
कि ज़िन्दगी बेमानी हुई जाती है,
कहाँ कोई फिर आईना है
टूटा, कि अक्श है मेरा
फिर बिखरा हुआ,
शाम है रंगीन, चिराग़ों से उठती
हैं, मजरूह सी रौशनी क्यूँ
न जाने कौन फिर किस मोड़ पे
किसी के लिए, दिल
की दुनिया लुटाये बैठा है,
वो तमाम उदास चेहरे खड़े हैं
उस चौक में किसी की इक झलक
पाने की उम्मीद लिए हुए -
सुना है वो कोई मसीहा था लेकिन
ज़माने ने उम्र से पहले उसे
सलीब पे चढ़ा दिया,
वो इश्तेहार जो मौसम ने बारहा
चिपकाया था वादियों में
कि लौटेंगी बहारें इक दिन
हमने इंतज़ार में तो उम्र गुज़ार दी
न देखा किसी को मुस्कराते
इक मुसलसल मक़बरा ए ख़ामोशी
के सिवाय कुछ भी तो न था
लोग कहते रहे यहीं पे कहीं हैं
फ़िरदौस की सीड़ियाँ, धुंध में डूबे
हुए थे सभी रास्ते, हम ने
कहीं तुम्हें देखा नहीं, घाटियों में
दर्द का धुआँ सा उठता रहा,
कराहों  की बस्तियां जलती रही
आईने टूटते रहे, चिराग़ बुझते रहे
सुबह कभी तो लाये  मुस्कराने का
सबब, हर शख्स ज़रा जी
तो ले मुख़्तसर ज़िन्दगी - - -
- - शांतनु सान्याल

 

06 जून, 2011


चिरस्थायी कुछ भी नहीं -
अनंत पथ के सभी समीकरण 
आखिर में शून्य हो गए
मुकुट व् मौसम में अंतर है 
बहुत ही थोड़ा -
न भेजो झंझा के हाथों कोई 
संदेस, वाष्पीकृत मेघ हैं, पागल 
न जाने कहाँ बिखर जाएँ,
सीमाविहीन हैं परागगण 
पंखुडियां हैं सदैव रंग बदलती,
भावनाओं के बुलबुले, स्वप्नों के 
संकलन, अपनों के चित्रावली,
आँखों में सहेज रखें तो बेहतर !
जीवन को बांधना है मुश्किल, न 
पूछो कि किसने किसे पाया 
किसने किसे खोया 
ये पहेली रहने भी दो, लहर और 
चांदनी के मध्य, कि मुमकिन नहीं 
दही का दुग्ध होना, तत्व जो है जन्मा 
विलुप्ति से मुकर नहीं सकता,
शब्दों के खेल थे सभी दर्शन 
भष्म हो कर अंत में सभी बह गए 
नीरव नदी विसर्जन में कभी 
बाधक नहीं बनती !
--- शांतनु सान्याल

05 जून, 2011

ज़िन्दगी

सुलगती है, ये रात फिर दोबारा
न कर जाय बर्बाद ख़्वाबों की वादियाँ 
बड़ी मुश्किल से हमने रोका था 
बादलों को शाम ढलते,
किसी के निगाहों से बहते आंसुओं की 
तरह, न हो यकीं तो पूछ लीजे 
इन ओंठों में नमीं है अब तलक मौजूद,
कैसे कह दें कि हमें तुमसे 
मुहोब्बत नहीं, उस मोड़ पे हमने आज
किसी के हथेलियों में ज़िन्दगी अपनी  
तर्ज़े हिना की मानिंद लिख आए हुज़ूर !
-- शांतनु सान्याल 

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