04 मई, 2011

काश जान पाते قاش جان پاتے

वो आदमी जो फूटपाथ पे

وو  آدمی  جو  فوٹ پاتھ  پے   
रात दिन, धुप छांव, गर्मी सर्दी
رات،  دیں ، دھوپ  چھاؤں 
अपने हर पल गुज़ार गया
اپنے  ہر  پل  گزار  گیا 
काश जान पाते उसके ख्वाबों में
قاش  جان  پاتے اسکے  خوابوں  میں 
ज़िन्दगी का अक्श क्या था //
زندگی  کا  اقص  کیا  تھا
वो शक्स रोज़ झुकी पीठ लिए
وو شقص  روز جھکی پیٹھ  لئے
बड़ी मुश्किल से रिक्शा चलाता हुवा
باڈی  مشکل سے اکشا  چلاتا  ہوا   
कल शाम गिर कर उठ न पाया
کل شام  گر کر اٹھ  نہ  پایا 
काश जान पाते कभी उसके दिल में
قاش جان پاتے  کے اسکے  دل  میں
सुबह की तस्वीर क्या थी //
صبح  کی  صراط  کیا  تھی 
वो चेहरा गुमसुम रेस्तरां में
وو  چہرہ  گمسم  ریستراں میں
आधी रात ढले काम करता रहा
آدھی رات  کام  کرتا  رہا 
उम्र भर गालियाँ सुनता रहा
عمر بھر گالیاں  سنتا  رہا  
काश जान पाते उसके बचपन के
قاش  جان  پاتے کہ  اسکے  بچپن  کے  
हसीं लम्हात क्या थे //
حسیں لمحات  کیا تھے 
एक बूढ़ा माथे पे बोझ लादे हुए
ایک بوڑھا ماتھے  پے  بوجھ  لادے  ہے 
मुक्तलिफ़ रेलों का पता देता रहा
مختلف ریلوں  کا پتہ  دیتا  رہا  
मुद्दतों प्लेटफ़ॉर्म में तनहा ही रहा
مدّتوں  پلاتفارم میں  تنہا   ہی  رہا
काश जान पाते उसकी
قاش  جان  پاتے  اسکی
मंज़िल का पता क्या था //
مزل کا  پتہ  کیا  تھا
शहर के उस बदनाम बस्ती में
شہر  کے  اس  بدنم  بستی  میں
पुराने मंदिर के ज़रा पीछे
پرانے  مندر  کے  ذرا  پیچھے
मुगलिया मस्जिद के बहोत करीब
مغلیہ  مسجد  کے  بھوت  قریب
शिफर उदास वो बूढी निगाहें
شیفر  اداس  وو  بوڑھی  نغاہیں
तकती हैं गुज़रते राहगीरों को
تکتیں  گزرتے  راہ گیروں  کو 
काश जान पाते उसकी नज़र में
قاش  جان  پاتے  اسکی  نظر  میں
मुहब्बत के मानि क्या थे //
مھوبّت  کے مانی  کیا تھے
वृद्धाश्रम में अनजान
وریدحہٰ آشرم میں  انجان
भूले बिसरे वो तमाम आँखें
بھولے  بسرے  وو  تمام  آنکھے
झुर्रियों में सिमटी जिंदगी
جھرریوں  میں  سمٹی  زندگی
काश जान पाते, वो उम्मीद की गहराई
قاش  جان  پاتے  وو امید  کی  گہری
जब पहले पहल तुमने चलना सिखा था //
جب  پہلے  پھل  تھمنے  چلنا  سیکھا  تھا
वो मुसाफिरों की भीड़ , कोलाहल
وو  مسافروں  کی بھیڑھ، کولاحال
जो बम के फटते ही रेत की मानिंद
جو  بم  کے پھٹے  ہی  ریت  کی مانند
बिखर गई खून और हड्डियों में
بکھر گئی  خون  اور  ہددیوں میں
काश जान पाते के, उनके लहू
قاش  جان  پاتے  انکے  لہو
का रंग हमसे अलहदा न था //
کا رنگ  ہمسے  الحدا  نہ  تھا
सिसकियों की ज़बाँ भी होती है
سسکیوں  کی  بھی  زباں  ہوتی  ہے 
करवट बदलती परछाइयाँ
کروٹ بدلی  پرچھائیاں  
और सुर्ख भीगी पलकों में कहीं ,
اور  سرخ  بھیگی  پلکوں  میں  کہیں
काश हम जान पाते खुद के सिवाय
قاش  ہم  جان  پاتے  خود  کے  صوا
ज़माने में ज़िन्दगी जीतें हैं और भी लोग //
زمانے  میں  زندگی  جیتیں  ہیں  اور بھی  لوگ 


شانتانو  سانیال - 
शांतनु सान्याल    

2 टिप्‍पणियां:

  1. काश हम जान पाते खुद के सिवाय
    ज़माने में ज़िन्दगी जीतें हैं और भी लोग |
    दिभाषा में लिखी गयी संवेदनशील रचना झकझोरती है और सोंचने को बाध्य करती है | बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, बधाई.....

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