06 मई, 2011



ज़िन्दगी

रहनुमाह थे बहोत, मगर हमसफ़र कोई नहीं
तनहा तनहा चलता रहा,इक नदी के हमराह
कभी इस किनारे कभी उस तरफ रहगुज़र कोई नहीं
इक पुल हुवा करता था, कभी दो साहिलों के दरमियाँ
बेनिशान थे नदी के धारे, हद ए नज़र कोई नहीं
हर सिम्त थी इक अजीब सी ख़ामोशी, तलातुम ठहरा हुवा
मेरा साया दग़ा देता रहा, साथ उम्र भर कोई नहीं /
---शांतनु सान्याल

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