06 मई, 2011

अपरिभाषित
सुदूर धूसर पहाड़ियों में, जब कभी दावानल धधक उठतें हैं ,
इक अजीब सी बेचैनी दिल के अन्दर होती है -
ओ फाल्गुनी रातें ,गर्म साँसों की तरह बहती बयारें
मध्य निशा ,रह रह कर चीखते मृग दल
सरसराते पीपल के सघन पत्ते , छाया पखेरू
थम थम कर रजनीगंधा का महकना
दूर तक परछाइयों का लगातार पीछा करना
ज़िन्दगी और मैं अक्सर अकेले में बातें करतें हैं
हिसाब करना बहोत ही मुश्किल है किसने, किसे, क्यों ?
मंज़िल से पहले ही धीरे से , खामोश चलते चलते
यूँ रास्ता बदल लिया अपना , जैसे कोई गुलदान टूट जाए
और हम कहें जाने भी दो ,शीशा ही था टूट गया -
टूटे रिश्ते और पहाड़ों में धधकती आग
बरसात का इंतजार नहीं करते
कौन किस गली में मिल जाये बादलों की तरह
जिसे बरसना है वो वादी और सेहरा में फर्क नहीं करते
हमें भी जीना है चाहे रात लम्बी हो या चंद लम्हात की
हिरण की दर्द भरी चीखें काश हम समझ पाते /
----शांतनु सान्याल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past