05 मई, 2011

ज़िन्दगी

इक लम्बी, खट्टी मीठी सी ज़िन्दगी
और लुकछुप करता बचपन-
पहाड़ी झरने की मानिंद बिखरते लम्हात
रेत पे लिख लिख कर किसी का नाम,
मुस्कराके मिटा देना --
अपनी ही परछाइयों से सहमते हुए
ज़माने के तमाम पहरे को
मुंह चिड़ाना, ओ खुबसूरत यादें --
शाम ढलते टूटे मंदिर के जानिब
दीप जलाने के बहाने
निगाहों से दिल की बात कहना
न कोई हसरत, न ही तकाज़ा
मासूम जज्बात, इश्क की बुनियाद
ओ ख्वाब जो कभी हकीक़त में ढल न सके -
ज़िन्दगी इक किताब जिसे पढ़ न सका कोई
पन्ने अपने आप जुढ़ते गए, दिन ब दिन-
मौसम की तरह रिश्तों के रंग, बदलते रहे
चाहत के तलबगार एक लम्बी फेहरिश्त -
हर कोई चाहे ढल जाऊं उसके सांचे में,
काश ओ गुमनाम पन्ने, किसीने पढ़ा होता
इक ग़ज़ल जो लबों पे आकार बिखर गयी वादियों में
आज भी फूल ओ खुशबुओं में उसके अक्श हैं मौजूद
वक़्त मिले कभी तो तलाश कीजिये
कुछ गुमनाम पन्ने--हवाओं में तैरती तहरीरें,
बादलों में पैगाम-ए मुहोब्बत, ओ इज़हार-ए-वफ़ा
जो कांच की तरह नाज़ुक, लेकिन बेदाग़ मुक़द्दस था /
----शांतनु सान्याल

1 टिप्पणी:

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