16 मार्च, 2011

नज़्म

जो नज़र झुके न किसी के दर्द में भीग कर
ख़ुद को तबाह कर जाती है इक दिन दर्द बन कर,
ये ज़िद की  मैं हूँ सिर्फ़ शाहे कायनात इस दौर का 
ख़लाओं  में  भटकती हैं तमाम रूहें मौत बन कर,
वो कोई ग़ैर नहीं मेरा ही साया था हमराह चला 
छलता रहा वही हर क़दम मेरी चाहत बन कर, 
मेरी ज़ात है सिर्फ़ इक ख़ुदा की मख़लूक़ , ये सोच 
न डूब ले जाए वक़्त के क़ब्ल क़यामत बन कर, 
पत्थरों में भी हैं देवता, ये है इश्क ए इन्तहां 
उसने आदमी मुझे बनाया मेरी ही चाहत बन कर,
हर शख्स में देखूं ख़ुदा की मूरत मैं बेपनाह 
बिखर जाऊं सुखी वादियों में आबे हयात बन कर,   
किसी के अश्क, ग़र कर न सके दिल को तरबतर 
जीना ही क्या ऐसा , ख्वाब ओ ख्यालात बन कर,
जी हाँ, बुत परस्त हूँ मैं मुझे हर सै से है मुहोब्बत 
अह्सासे वफ़ा न बुझने दे मुझे ख़ुद बरसात बन कर,
अहमियत इसी में है कि मिट जाऊं किसी के लिए 
मुझे मंज़ूर नहीं लम्बी उम्र, जी

ऊँ  सवालात बन कर !
- - शांतनु सान्याल    



3 टिप्‍पणियां:

  1. अहमियत इसी में है कि मिट जाऊं किसी के लिए
    मुझे मंज़ूर नहीं लम्बी उम्र, जीउँ सवालात बन कर !

    बहुत बढ़िया नज़्म

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  2. धन्यवाद् संगीता दी, आपका आशीष बना रहे हमेशा इसी उम्मीद के साथ श्रद्धा युक्त नमन.

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  3. धन्यवाद् संगीता दी, आपका आशीष बना रहे हमेशा इसी उम्मीद के साथ श्रद्धा युक्त नमन.

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