04 फ़रवरी, 2011

नज़्म - - ख़्वाबों की बेरुख़ी

कैसे तुम्हें बताएं, आस्मां का वो बिखर जाना
तरसते रहे रातभर, हम इक बूँद रौशनी के लिए.
वो सांसों का इन्क़लाब, ख़्वाबों की बेरुख़ी -
तकते रहे सूनी राहों को, दो पल ख़ुशी के लिए.
जाने कहाँ ठहर से गए सितारों के कारवां -
ख़लाओं में तलाशा उन्हें, बाक़ी ज़िन्दगी के लिए.
हवाओं में तैरते रहे, भीगे अहसास-ऐ-खतूत
तरसे निगाह वादी वादी, बरसने की ज़मीं के लिए.
हर तरफ थे शीशमहल, अक्श धुंधलाया सा
कोई तो आवाज़ दे, ज़िन्दा हूँ मैं इस यकीं के लिए.
.
- - शांतनु सान्याल
.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past